सूरत : श्रीकृष्ण के बाल सखा सुदामा तपस्वी ब्राह्मण के साथ ब्रह्मज्ञानी भी थे : आचार्य पवन नंदनजी महाराज
हवन एवं महाप्रसादी के साथ सात दिवसीय श्रीमद् भागवत की पूर्णाहूति
धनुर्मलमास के पावन अवसर पर बिहारी जी की अनुकंपा से श्री लक्ष्मीनाथ सेवा समिति सूरत-वृंदावन द्वारा सिटी लाइट स्थित महाराजा अग्रसेन भवन के द्वारिका हाल में आयोजित सात दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा
बुधवार को सुदामा चरित्र, परीक्षित मोक्ष, हवन-महाप्रसादी के साथ विराम हो गया। व्यासपीठ पर विराजमान परम श्रद्धेय आचार्य पवन नंदनजी महाराज अपने मुखारविन्द से दिव्य ज्ञान वर्षा कर पतितपावनी मां तापी के तट पर बसे कुबेर नगरी सूरत में भगवान के कृपापात्र भक्तों को भागवतिक गंगा में सतत सात दिनों तक गोता लगवाया।
सात दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा के अंतिम दिन बुधवार को बाबूलाल टिबरेवाल, राजकुमार सराफ, विनोद लाठ, राजेन्द्र खैतान, संतोष सराफ, पवन सराफ, मुरलीधर शर्मा, गजेंद्र अग्रवाल, मधुसूदन शर्मा ,ललित बजाज ,महेश देवड़ा ,शिवरतन देवड़ा, मोनू देवड़ा ,मुरारी सराफ, सुशील बजाज, राजेश(निजु) सराफ, सुभाष पाटोदिया, प्रफुल्ल टिबरेवाल, रतनलाल बजाज, पवन जैन, सज्जन तुलस्यान, कैलाश केजरीवाल सहित बड़ी संख्या श्रद्धालु भक्त उपस्थित रहे। भागवत कथा आयोजन से जुड़े हुए विश्वनाथ पचेरिया ने सभी का आभार प्रकट किया और आचार्य पवन नंदन जी महाराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
लोक विख्यात संत विजय कौशल जी महाराज के कृपा पात्र वृंदावन के आचार्य पवन नंदनजी महाराज ने जरासिंध वध, सुदामा चरित्र, परीक्षित मोक्ष प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के बाल सखा सुदामा परम तपस्वी ब्राह्मण के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी भी थे। वह ऐसे ब्राह्मण थे जो किसी से कुछ भी नहीं मांगा। यहां तक की भगवान कृष्ण से भी कुछ नहीं मांगा। जो कुछ भी यजमानों के द्वारा मिल जाता था उसी से उनका जीविकोपार्जन होता था। उनकी इस दशा को देखकर भगवान कृष्ण ने माता सरस्वती जी को प्रेरित कर उनकी पत्नी सुशीला से उन्हें द्वारका मिलने की प्रेरणा दिलवाई। तब उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान से मिलने द्वारका आए। यहां भी उन्होंने अपने बालसखा से कुछ भी नहीं मांगा। परंतु योगेश्वर भगवान कृष्ण ने कृपाकर सुदामा की झोपड़ी की जगह द्वारिका पुरी की तरह सुदामा पूरी को कंचन महल बना दिया।
महाराज जी ने इन दिनों कथाओं में सुदामा को दीन हीन बताकर उनकी झांकी निकालने की प्रथा को गलत बताते हुए कहा कि उनकी यह दशा दिखाना बंद होना चाहिए और श्रोताओं से कहा कि इस तरह की झांकी कभी मत निकालना। उन्होंने कहा कि सुदामा द्वारका नहीं पहुंच पाते, लेकिन भगवान की ओर निकलने पर भगवान स्वयं कृपा कर अपने पास बुला लेते हैं। जब तक भगवान के मार्ग पर नहीं चलते तब तक राह दूर होता है जब उनके मार्ग में चलते हैं तो वह कृपाकर आगे की राह आसान बना देते हैं। ...देखि सुदामा की दीन दशा, करुणा कर करुणानिधि रोए, हाथ परात को छुए नहीं नैनन की जल से पग धोए...पर सभी श्रोता भाव विह्वल होकर भगवान का जय जयकार करने लगे।
महाराजजी ने कहा कि कलियुग जैसा कोई युग नहीं है। इस युग में सिर्फ भजन, कीर्तन और सुमिरन से परम पद की प्राप्ति हो जाती है। जबकि सतयुग में मनुष्य की 100000 वर्ष की आयु होती थी। उस युग में महा तपस्या करना पड़ता था। हजारों वर्ष की तपस्या से जो फल मिलता था, वह कलियुग में सुमिरन, भजन से मिल रहा है। त्रेता युग में 10000 वर्ष की आयु, द्वापर में 1000 की आयु होती थी। जबकि कलियुग में मनुष्य की आयु 100 वर्ष है। महाराजजी ने सभी को धर्मशास्त्र पढ़ने की आदत डालने के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए मनुष्य को भजन,कीर्तन सुमिरन और भगवत स्मरण अवश्य करना चाहिए। अंत में कथा विश्राम के पूर्व परम पूजनीय प्रातः स्मरणीय संत विजय कौशलजी महाराज का संदेश विश्वनाथ पचेरिया ने वाचन किया।