सूरत :  आत्मा का अध्ययन और स्वयं का स्वभाव ही अध्यात्म है  : आचार्य सुंधाशुजी महाराज

इस संसार का त्याग तो एक दिन करना ही है पर यह त्याग मोहपूर्वक न होकर ज्ञानपूर्वक हो तो कल्याणकारी होगा

सूरत :  आत्मा का अध्ययन और स्वयं का स्वभाव ही अध्यात्म है  : आचार्य सुंधाशुजी महाराज

विश्व जागृति मिशन के मुखिया आचार्य सुधांसुजी महाराज ने श्रीमद् गीता पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन संवाद का वर्णन करते हुए कहा कि

    किं तद्ब्रह्म किमघ्यात्मं कि कर्म पुरुषोत्तम।
    अधिभूतं च किं प्रोत्तफ़मधिदैवं किमुच्यते।। (गीता-8-1)
    अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा ‘हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत का तात्पर्य क्या है? अधिदैव किसे कहा जाता है? अधियज्ञ शब्द का क्या तात्पर्य है? हे मधुसूदन! जो पुरुष संसार से हटकर अनन्यभाव से आप में ही लगे हुए हैं उनके द्वारा अन्तकाल में आप कैसे जाने जाते हैं?’
    अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो{घ्यात्ममुच्यते।
    भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म सिज्ञतः।। (गीता-8-3)
    भगवान ने कहा परम अक्षर ही परम ब्रह्म है, स्वभाव को ही अध्यात्म कहते हैं। अपने भाव अर्थात् होनेपन का नाम स्वभाव है-स्वो भावः स्वभावः। जीवन मात्र होने का नाम अध्यात्म है। जितने भी जीव हैं, जितनी आत्मायें हैं उनका होना स्वभाव कहलायेगा और यही अध्यात्म है। प्रश्न उठता है जीव नये-नये बनते रहते हैं या उतने ही हैं, जीव आत्मायें कितनी हैं? संसार में नये-नये जीवधारी पैदा हो रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। जीवात्मायें जितनी पहले थीं उतनी ही आज भी हैं। परमात्मा की सृष्टि में न जाने कितने ब्रह्माण्ड रोज बन रहे हैं और नष्ट हो रहे हैं और कितने जीव शरीर छोड़ रहे हैं और उत्पन्न हो रहे हैं। यह सब हमारे अनुमान से परे है। हमारी दृष्टि तो केवल इस पृथ्वी तक ही जाती है।

भगवान ने कहा कि स्थावर- जंगम जितने भी प्राणी देखने में आते हैं उनका जो भाव है, उनके होनेपन को प्रकट करने के लिये जो त्याग है, उसको कर्म कहते हैं। पृथ्वी, जल, और आकाश इससे बनी सृष्टि अधिभूत है। अधिदैव आदिपुरुष हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी को कहते हैं। इस मनुष्य शरीर में अन्तर्यामी रूप में रहने वाला मैं ही अधियज्ञ हूं। जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है वह मुझे ही प्राप्त होता है। भगवान का स्मरण करके शरीर छोड़ने वालों का सम्बन्ध भगवान से हो जाता है। मरणासन्न व्यक्ति का जैसे भी जीवन बीता हो यदि वह अन्तकाल में भगवान को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायेगा। यहां पर यह शंका होती है कि जिसने जीवन भर भगवान का नाम नहीं लिया, भगवान से विमुख रहा, उसको अन्त समय में भगवान की याद कैसे आयेगी और उसका कल्याण कैसे होगा?

महाराजजी ने कहा कि अन्त समय में यदि किसी पर भगवान की कृपा हो जाती है तो उससे अनायास ही भगवन्नाम का उच्चारण हो जाता है या किसी सन्त पुरुष के दर्शन हो जाते हैं। शरीर छोड़ते समय जो भाव मन में उदित होता है उसी भाव को व्यक्ति प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसी योनि में चला जाता है। दूसरे जन्म की प्राप्ति अन्तकाल में हुए चिन्तन के अनुसार होती है। इसीलिये भगवान ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन! तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा। भगवान के स्मरण की जागृति के लिए भगवान का स्मरण होना चाहिये। यह अपनापन जितना ही दृढ़ होगा, उतनी ही भगवान की स्मृति बार-बार आयेगी।

अन्तकाल में चिन्तन के अनुसार कैसी गति प्राप्त होती है- यह बताते हुए भगवान कहते हैं कि यदि मनुष्य अन्तकाल में अचल मन से योगबल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह प्रविष्ट कर शरीर छोड़ता है तो वह परम दिव्य रूप को प्राप्त होता है। इन्द्रियों के सभी द्वारों को रोक कर मन को हृदय में निरोध करे और प्राणों को भृकुटी के मध्य स्थापित करके मेरा स्मरण करता हुआ का उच्चारण करके जो शरीर छोड़ता है, वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। अन्त समय में भी भगवान का नाम याद आये इसके लिए सदैव का मानसिक रूप से उच्चारण करता रहे।

महाराजजी ने कहा कि सब देशकाल परिस्थिति में सदैव परमात्मा सच्चिदानन्दघन की ही सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, इस तरह की धारणा करना ही भगवान का स्मरण करना है। जीवन भर जिस वृत्ति का अभ्यास निरन्तर चलता है अन्त में वही मानस पटल पर उदित हो जाती है। इसलिये जहां तक हो सके शुद्ध सात्विक वृत्ति ही अपनाएं। हमारी जो आदतें हैं वह अभ्यास में लाते रहने से परिपक्व हो जाती हैं। अन्तःकरण पर पड़ी हुई अभ्यास की लकीरें स्वभाव बन जाती हैं। यदि यह अभ्यास भक्तिमय हो तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि परम प्रभु की प्राप्ति में कोई बाधा आये। मन चंचल है, तो अभ्यास से ही इसे नियंत्रित करना पड़ेगा। जिसके पास योग का बल होता है और जिसका प्राणों पर अधिकार होता है, उसको तो भगवान के चरण-शरण की प्राप्ति हो जाती है। जिसका चित्त भगवान को छोड़कर जगत् के किसी भी अन्य आकर्षण में नहीं पड़ता, जो मनुष्य नित्य-निरन्तर भगवान का स्मरण करता है उसके लिये यह कर्म अत्यन्त सुलभ है। 

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो महात्मा मेरे भाव को प्राप्त हो जाते हैं उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता, आवागमन का दुःख कभी भी झेलना नहीं पड़ता और उनको प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। जन्म के समय शिशु को उसी प्रकार कष्ट होता है जैसे शरीर की चमड़ी उतारी जा रही हो। वह अपना कष्ट किसी को बता भी नहीं पाता। जन्म और मृत्यु जीवन के दो द्वार हैं जिनमें से होकर गुजरना कष्टपूर्ण है। वे इनसे सहज ही पार हो जाते हैं जो हृदय में भगवान की याद लिये रहते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे बड़ा होता है आपस में ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान, क्रोध आदि के कारण कष्ट पाता है। सद्गति प्राप्त आध्यात्मिक पुरुष को ये कष्ट नहीं झेलने पड़ते।

जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है और यहां से जाने के बाद फिर लौट कर नहीं आना पड़ता। भगवान ने कहा कि ऊंच-नीच योनियों में जाने का कारण, ऊंचे-नीचे गुणों-कर्मों के कारण संसार में ममता, आसक्ति, कामना जो मनुष्य करेगा तो उसको लौटकर संसार में आना ही पड़ेगा। ज्ञान शीर्ष पर पहुंचे तो वैराग्य का जन्म होता है। ज्ञानस्य पराकाष्ठा वैराग्यम्। इस संसार का त्याग तो एक दिन करना ही है पर यह त्याग मोहपूर्वक न होकर ज्ञानपूर्वक हो तो कल्याणकारी होगा। संसार से ऊपर उठने की स्थिति मन में जाग जाय तो संसार में रहने का भी आनन्द आयेगा और संसार से विदाई लेते समय भी स्वयं को तसल्ली होगी। 

भगवान अर्जुन को परमात्मा-विषयक ज्ञान देने के बाद अब परमात्मा की अनन्य भक्ति के बारे में बता रहे हैं। ‘मेरे परमधाम को प्राप्त हुआ व्यक्ति पुनः लौटकर नहीं आता। ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’यही जीवन की परमगति कही जाती है। परमधाम परमात्मा की अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है। जितने भी धर्म हैं, चाहे वे यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि ही क्यों न हों इनको करने से प्राप्त होने वाला पुण्य अन्ततः समाप्त होता ही है। पुण्यों के समाप्त होने पर पुनः जन्म धारण करना पड़ेगा। 

उत्तम-से-उत्तम कार्य का आरम्भ और अन्त होता है तो उसका फल अविनाशी तो हो नहीं सकता। जीव परमात्मा का अविनाशी अंश होकर भी विनाशी पदार्थों में फंसा रहे, इसका मुख्य कारण अज्ञान ही है। जगत में संग्रह और भोगों में आसक्त मनुष्य परमात्मा के तत्व को नहीं जान सकता। जीव परमात्मा-तत्व को जानने में अपने को असमर्थ महसूस करता है- यह भाव जीव का परमात्मा से विमुखता के कारण ही है। परमात्मा को आध्यत्मिक ज्ञान से ही जाना जा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान से ही शाश्वत शांति मिल सकती है। इसलिए शाश्वत शांति और आनंद के लिए अध्यात्म ही एकतात्र साधन है।

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