आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में दोषी ठहराने के लिए केवल उत्पीड़न पर्याप्त नहीं : न्यायालय
नयी दिल्ली, 12 दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध में दोषी ठहराने के लिए केवल उत्पीड़न पर्याप्त नहीं है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उकसाने के स्पष्ट सबूत होने चाहिए।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पी बी वराले की पीठ ने यह टिप्पणी गुजरात उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर अपना फैसला सुनाते हुए की, जिसमें एक महिला को कथित रूप से परेशान करने और उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने के लिए उसके पति और उसके दो ससुराल वालों को आरोपमुक्त करने से इनकार कर दिया गया था।
हाल ही में 34 वर्षीय प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ अतुल सुभाष की आत्महत्या के मामले के मद्देनजर, इस फैसले में की गई न्यायलय की टिप्पणियां महत्वपूर्ण हैं।
अतुल सुभाष ने अपनी अलग रह रही पत्नी और उसके परिवार के हाथों उत्पीड़न का आरोप लगाया था। उनकी पत्नी निकिता सिंघानिया, निकिता की मां निशा, पिता अनुराग और चाचा सुशील के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया गया है।
शीर्ष अदालत की टिप्पणियां निकिता और उसके परिवार के सदस्यों के लिए मददगार साबित हो सकती हैं।
वर्ष 2021 में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए (विवाहित महिला के साथ क्रूरता करना) और 306 सहित कथित अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया था, जो आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध से संबंधित है और इसमें 10 साल तक कैद और जुर्माने का प्रावधान है।
पीठ ने 10 दिसंबर के अपने फैसले में कहा, ‘‘भादसं की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि के लिए यह एक सुस्थापित कानूनी सिद्धांत है कि कार्य को उकसाने का इरादा स्पष्ट होना चाहिए। केवल उत्पीड़न किसी आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है।’’
साथ ही पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष को अभियुक्त द्वारा की गई सक्रिय या प्रत्यक्ष कार्रवाई के बारे में बताना चाहिए जिसके कारण एक व्यक्ति ने अपनी जान ले ली।
पीठ ने कहा कि कार्य को उकसाने के इरादे का केवल अनुमान नहीं लगाया जा सकता और यह साफ तौर पर तथा स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य होना चाहिए।
पीठ ने कहा ‘‘इसके बिना, कानून के तहत उकसावे को स्थापित करने की मूलभूत आवश्यकता पूरी नहीं होती है, जो आत्महत्या के कृत्य को भड़काने या इसमें योगदान देने के लिए जानबूझकर और स्पष्ट इरादे की आवश्यकता को रेखांकित करता है।’’
पीठ ने धारा 306 के तहत लगाए गए आरोप से तीन लोगों को मुक्त कर दिया, और भादसं की धारा 498-ए के तहत अपीलकर्ताओं के खिलाफ आरोप को बरकरार रखा।
पीठ ने पाया कि महिला के पिता ने उसके पति और सास ससुर के खिलाफ भादसं की धारा 306 और 498-ए सहित कथित अपराधों के लिए एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
पीठ ने कहा कि महिला की शादी 2009 में हुई थी। पांच साल तक दंपति को कोई बच्चा नहीं हुआ, जिसके कारण महिला को कथित तौर पर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।
पीठ ने आगे कहा कि अप्रैल 2021 में महिला के पिता को सूचना मिली कि उनकी बेटी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है।
उच्च न्यायालय ने आरोपियों के खिलाफ भादसं की धारा 306 और 498-ए के तहत आरोप तय करने के सत्र अदालत के आदेश को बरकरार रखा था। शीर्ष अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 306 उन लोगों के लिए दंड का प्रावधान करती है जो किसी अन्य को आत्महत्या के लिए उकसाते हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘किसी व्यक्ति पर इस धारा के तहत आरोप लगाने के लिए अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना होगा कि आरोपी ने पीड़ित को आत्महत्या करने के लिए उकसाया था।’’
पीठ ने कहा कि भादसं की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि के लिए मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने या प्रेरित करने के वास्ते स्पष्ट मंशा स्थापित करना आवश्यक है।
पीठ ने कहा ‘‘इस प्रकार पत्नी की मृत्यु के मामलों में, अदालत को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए। साथ ही प्रस्तुत साक्ष्य का आकलन करना चाहिए। यह निर्धारित करना आवश्यक है कि पीड़िता पर की गई क्रूरता या उत्पीड़न ने उसके पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं छोड़ा था।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि आत्महत्या के कथित उकसावे के मामलों में, आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्यों का ठोस सबूत होना चाहिए।
पीठ के अनुसार ‘‘केवल उत्पीड़न के आरोप दोषसिद्धि स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। दोषसिद्धि के लिए, आरोपी द्वारा उकसावे के कार्य का सबूत होना चाहिए, जो घटना के समय से संबंधित हो, जिसने पीड़ित को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया या प्रेरित किया।’’
इसने कहा कि इस मामले में, प्रथम दृष्टया, ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलकर्ताओं के पास अपेक्षित मानसिक कारण नहीं था और न ही उन्होंने आत्महत्या के लिए उकसाने या सहायता करने के लिए कोई सकारात्मक या प्रत्यक्ष कार्य किया या चूक की।
पीठ ने कहा कि महिला ने शादी के 12 साल बाद आत्महत्या की थी। पीठ ने कहा, ‘‘अपीलकर्ताओं का यह तर्क अर्थहीन है कि मृतका ने शादी के बारह वर्षों में अपीलकर्ताओं के खिलाफ क्रूरता या उत्पीड़न की एक भी शिकायत नहीं की थी। केवल इसलिए कि उसने बारह वर्षों तक कोई शिकायत दर्ज नहीं की, यह गारंटी नहीं है कि क्रूरता या उत्पीड़न का कोई मामला नहीं था।’’
अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए, पीठ ने भादसं की धारा 306 के तहत अपीलकर्ताओं को आरोपमुक्त कर दिया। हालांकि, इसने धारा 498-ए के तहत आरोप को बरकरार रखा और कहा कि इस प्रावधान के तहत उनके खिलाफ मुकदमा चलेगा।