समाज सेवा के लिए विधायक या सांसद होना अनिवार्य नहीं है!

समाज सेवा के लिए विधायक या सांसद होना अनिवार्य नहीं है!

राजनीति और समाजसेवा दो ऐसे विषय हैं जो अक्सर एक-दूसरे से जुड़े हुए लगते हैं, लेकिन वास्तव में इन दोनों के बीच एक सूक्ष्म और महत्वपूर्ण अंतर है। कई लोगों का मानना है कि समाज सेवा करने के लिए विधायक या सांसद होना ज़रूरी है। लेकिन क्या यह सच में आवश्यक है? इस सवाल का उत्तर हमें समाजसेवा और राजनीति की मूल प्रकृति को समझने में मदद करता है।

समाजसेवा का अर्थ है समाज और लोगों की भलाई के लिए किया गया कार्य। इसके लिए सत्ता की कोई आवश्यकता नहीं होती। एक साधारण व्यक्ति भी अपने गांव में शिक्षा की सुविधा प्रदान कर सकता है, गरीबों की मदद कर सकता है या पर्यावरण संरक्षण के लिए कदम उठा सकता है। समाजसेवा हमेशा निःस्वार्थ होती है, जिसमें न तो अपना लाभ होता है और न ही सत्ता की लालसा। उदाहरण के तौर पर, गुजरात के कई गांवों में लोगों ने स्वयं के प्रयासों से चेकडैम बनाकर पानी की समस्या का समाधान किया, और इसके लिए उन्हें किसी सरकारी पद की आवश्यकता नहीं पड़ी—सिर्फ समर्पण और समाज के प्रति भावना ही पर्याप्त थी।

समाजसेवा वह क्षेत्र है जिसमें व्यक्ति अपनी क्षमताओं और संसाधनों का उपयोग समाज के उत्थान के लिए करता है। यह छोटे स्तर से शुरू हो सकती है—गांव, शहर, राज्य और देश, हर स्तर पर सेवा देना ही सच्ची समाजसेवा है। इस कार्य में सत्ता नहीं, बल्कि समर्पण और सहानुभूति की आवश्यकता होती है।

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वहीं दूसरी ओर, राजनीति सत्ता से गहराई से जुड़ी होती है। इसका उद्देश्य नीतियों का निर्माण करना, शासन करना और समाज को एक निश्चित दिशा में ले जाना होता है। इसके लिए विधायक या सांसद जैसे पदों की आवश्यकता होती है क्योंकि इन्हीं के माध्यम से कानून बनते हैं और उनका क्रियान्वयन होता है। हालांकि, राजनीति में सत्ता अक्सर व्यक्तिगत लाभ और प्रभुत्व का साधन बन जाती है।

अगर हम गुजरात के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें, तो कई नेताओं ने समाजसेवा से शुरुआत की और बाद में राजनीति में प्रवेश किया। लेकिन जैसे-जैसे वे सत्ता के करीब पहुंचे, उनका ध्यान समाजसेवा से हटकर राजनीतिक लाभ की ओर बढ़ गया। यह स्पष्ट करता है कि राजनीति में सत्ता एक प्रमुख तत्व है, जबकि समाजसेवा में इसका कोई स्थान नहीं होता।

फिर भी, समाजसेवा और राजनीति को पूरी तरह अलग नहीं किया जा सकता। एक अच्छा राजनेता सेवा भावना के साथ कार्य कर सकता है। सरदार वल्लभभाई पटेल और नरेंद्र मोदी जैसे उदाहरण सामने हैं, जिन्होंने राजनीति में रहते हुए भी समाजसेवा को अपना मुख्य उद्देश्य बनाया। उनका जीवन दर्शाता है कि यदि सत्ता का उपयोग समाज के हित में किया जाए, तो राजनीति भी समाजसेवा का रूप ले सकती है। लेकिन ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं।

आज के समय में राजनीति प्रायः स्वार्थ और पक्षपात से जुड़ गई है। चुनावों के समय बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें भुला दिया जाता है। इसके विपरीत, समाजसेवा एक सतत प्रक्रिया है जिसमें वादों की नहीं, बल्कि सत्कर्म की आवश्यकता होती है।

समाज, गांव, शहर, राज्य और देश—इन सभी के लिए हमारा समर्पण ही सच्ची सेवा है। यह समर्पण छोटे स्तर से शुरू हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति अपने गांव में स्वच्छता अभियान चलाता है, तो यह गांव की सेवा है। यदि वही प्रयास शहर तक पहुंचता है, तो यह शहर की सेवा बन जाती है। इस तरह छोटे प्रयासों से बड़े बदलाव की शुरुआत हो सकती है।

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गुजरात की कई सामाजिक संस्थाओं ने इसका उदाहरण प्रस्तुत किया है। खोडलधाम, विश्व उमिया फाउंडेशन, स्वामीनारायण संस्थाएं और अन्य कई जानी-मानी संस्थाओं ने शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है—वह भी बिना किसी सत्ता के। यह दर्शाता है कि समाजसेवा के लिए इच्छाशक्ति और समर्पण जरूरी है, न कि कोई राजनीतिक पद।

अंततः, समाजसेवा और राजनीति के बीच का अंतर स्पष्ट है। समाजसेवा निःस्वार्थ भावना से किया गया कार्य है, जबकि राजनीति सत्ता और शासन से जुड़ी होती है। दोनों का लक्ष्य भले ही समाज का कल्याण हो, लेकिन उनका तरीका और उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। आज के समय में जब राजनीति में स्वार्थ बढ़ रहा है, तब समाजसेवा का महत्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है।

हमें यह समझना जरूरी है कि समाज की सेवा करने के लिए सरपंच, पार्षद, विधायक या सांसद बनना जरूरी नहीं है। ज़रूरी है सिर्फ एक समर्पित मन और सेवा की सच्ची भावना।

(लेखक एक प्रतिष्ठित उद्यमी और समाज सेवक हैं। लेख में व्यक्त किये गये विचार उनके निजी विचार हैं। )

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