‘पखावज के दो टुकड़ों में टूटने से हुई तबले की उत्पत्ति’: किंवदंती के हवाले से किया जाता है दावा
(मानिक गुप्ता)
नयी दिल्ली, 16 दिसंबर (भाषा) तबले की उत्पत्ति को लेकर एक किंवदंती है कि एक मुगल दरबार में दो पखावज वादकों के बीच प्रतियोगिता हुई थी और उसमें हारने वाले उस्ताद को इतना गुस्सा आया कि उसने अपने पखावज को दो टुकड़ों में तोड़ दिया। इस तरह तबले की उत्पत्ति हुई थी।
लकड़ी, धातु और चमड़े से बने तबले की उत्पत्ति इस तरह नाटकीय ढंग से हुई थी, जो आज किसी भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत प्रस्तुति में मुख्य वाद्य यंत्र है। सदियों तक तबला, गायक या मुख्य वादक के बाद दूसरे स्थान पर रहा जब तक कि पंडित समता प्रसाद, पंडित किशन महाराज और उस्ताद अल्ला रक्खा खान ने इसे प्रमुखता नहीं दी।
हालांकि, इसे वैश्विक मंच पर लाने का काम अल्ला रक्खा के बेटे जाकिर हुसैन ने किया जिन्होंने जॉन मैकलॉघलिन, यो-यो मा और बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन जैसे पश्चिमी कलाकारों के साथ मिलकर प्रमुख मंचों पर प्रस्तुतियां दीं।
तबले से निकलने वाली विविध ध्वनियों की तरह ही तबले के आविष्कार के पीछे भी कई कहानियाँ हैं। 18वीं शताब्दी में मोहम्मद शाह रंगीला के दरबार में सुधार खान धादी द्वारा पखावज को तोड़े जाने की बात सिर्फ़ एक किंवदंती है।
संगीतज्ञ पंडित विजय शंकर मिश्रा ने अपनी पुस्तक ‘आर्ट एंड साइंस ऑफ प्लेइंग तबला’ में कहा है, ‘‘तबले की उत्पत्ति भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे विवादास्पद पहलुओं में से एक है और इस बारे में निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।’’
मिश्रा की पुस्तक के अनुसार, क्रोध शांत होने के बाद सुधार खान ने पखावज के दो टूटे हुए टुकड़ों को इस तरह से रखा कि उनके चमड़े वाला हिस्सा (पूड़ी) ऊपर हो, और बिलकुल आज के तबले की तरह उन पर बजाना शुरू किया। चूंकि पखावज दो टुकड़ों में बंट जाने के बावजूद ध्वनि उत्पन्न कर सकता था, इसलिए लोगों ने कहा: ‘तब भी बोला’ (जो) ‘तब्बोला’ और अंत में ‘तबला’ में बदल गया।
कई लोग तबले के आविष्कार का श्रेय 18वीं शताब्दी की शुरुआत में अमीर खुसरो खान नामक एक ढोलकिया को देते हैं, जिन्हें ‘ख्याल’ के रूप में जानी जाने वाली उभरती हुई संगीत शैली के साथ एक अधिक परिष्कृत और मधुर ताल वाद्य बनाने का काम सौंपा गया था।
यद्यपि तबला हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपेक्षाकृत हाल ही में शामिल किया गया वाद्य है, लेकिन इस वाद्य ने अत्यधिक लोकप्रियता हासिल कर ली है और आज तबले के बिना किसी संगीत समारोह की कल्पना करना असंभव है, चाहे वह एकल वाद्य हो या संगत के रूप में।
सदियों से, भारतीय शास्त्रीय तबले में कई अलग-अलग घराने विकसित हुए हैं, जिनमें अजराड़ा, बनारस, दिल्ली, फर्रुखाबाद, लखनऊ और पंजाब शामिल हैं। यद्यपि इन घरानों का आज भी तबला परंपरा पर प्रभुत्व है, लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्ध में कई आधुनिक प्रतिपादकों ने अपने पूर्ववर्तियों के काम को आगे बढ़ाने का प्रयास किया।