जलवायु परिवर्तन के दौर में करें मोटे अनाज मडुआ की खेती:कृषि विशेषज्ञ
जलवायु परिवर्तन के दौर और वैश्विक मांग के अनुरूप मोटे अनाज की खेती किसानो के लिए वरदान है
पूर्वी चंपारण,31 मार्च(हि.स.)। जिस प्रकार लगातार जलवायु परिवर्त्तन हो रहा है वैसे में परंपरागत खेती से अलग चलने की जरूरत है। किसान भाई गरमा फसल के रूप में मड़ुआ और चीना जैसे मोटे अनाज की खेती कर भरपूर लाभ प्राप्त कर सकते है। उक्त बाते पूर्वी चंपारण के परसौनी कृषि विज्ञान केंद्र के मृदा विशेषज्ञ डा.आशीष राय ने श्रीअन्न विषय पर आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान कही।
उन्होंने किसानों को संबोधित करते कहा कि मोटे अनाज के खेती के लिए प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य किसानों के बीच में मोटे अनाजों को बढ़ावा के साथ खेती की पारंपरिक विधि से की जाने वाली गतिविधियों में परिवर्तन करना है क्योकी बदलते हुए जलवायु में उन्नत किस्म के मोटे अनाजों की खेती आज समय की मांग है।उन्होने किसानों को बताया कि हमारे देश में मडुआ सहित अन्य मोटे अनाज की खेती प्राचीन समय से होती रही है लेकिन कालांतर में इसमे कमी आयी है।लेकिन जलवायु परिवर्तन के दौर और वैश्विक मांग के अनुरूप मोटे अनाज की खेती किसानो के लिए वरदान है।
उन्होंने बताया कि मोटे अनाज में मड़ुआ का एक विशिष्ट स्थान है। जो वर्षा आधारित फसल है। जिसके 1 फूल में 4-6 स्पाइक होते हैं जिसको अंगुलियां कहते हैं इसमें अधिकत: स्वपरागण होता है।इसकी खेती के लिए महज 50-100 मिमी वर्षा की जरूरत होती है। इस फसल को कम पानी देकर भी गर्मी के मौसम में उगाया जा सकता है।मडुआ की खेती मुख्य रूप से लाल एवं हल्की लाल, हल्की काली, दोमट एवं बलुई दोमट मिट्टियों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।मडुआ की खेती अकेले तथा मिश्रित दोनों तरीके से की जा सकती है। दक्षिण भारत में मड़ुवा के बाद ज्वार, अरहर, उड़द, मूंग, तिल, मूंगफली, अंडी, चना, राम तिल आदि की खेती की जाती है। यदि इसे सिंचित दशा में लगाते हैं तो इसके बाद धान, तंबाकू, गन्ना, शकरकंद, मक्का, मिर्च, बैगन, मूंगफली, आलू, प्याज की खेती भी की जा सकती है। मड़ुआ को मिश्रित खेती के रूप में अरहर, ज्वार, बाजरा, तिल, कोदो, सांवा, लोविया के साथ भी उगाया जा सकता है। उत्तर भारत में मडुआ के बाद आलू, गेहूं, सरसों, चना, मटर, जौ आदि रबी की फसलें सफलतापूर्वक उगाई जाती है।
प्रशिक्षण के दौरान कृषि अभियांत्रिकी विशेषज्ञ डा.अंशू गंगवार ने बताया कि मडुआ की खेती के लिए जमीन समतल एवं भुरभुरी होनी चाहिए। इसकी खेती के लिए पिछली फसल कटने के तुरंत बाद मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई करनी चाहिए। मृदा विशेषज्ञ डा.आशीष राय ने बताया कि मडुआ की खेती के लिए नत्रजन 50-60 किग्रा., 30-40 किग्रा. फास्फोरस तथा 20-30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन की आधी तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय खेत में डालना चाहिए। शेष बचे हुए नाइट्रोजन का एक चौथाई भाग प्रथम निकाई- गुड़ाई पर तथा शेष मात्रा को प्रथम निकाई- गुड़ाई के ठीक 20 दिन बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।
यदि जैविक खाद उपलब्ध हो तो इसे अंतिम जुताई से 15-20 दिन पहले दिया जाना चाहिए तथा उसी अनुपात में उर्वरकों का प्रयोग कम कर देना चाहिए। साथ ही किसान भाई बायोफर्टिलाइजर के रूप में एसपरजिलस एवामोरी एजोस्पाइरलम दे तो लाभदायक होगा। कीट विशेषज्ञ डा.जीर विनायक ने बताया कि बुवाई से पहले बीजोपचार आवश्यक है। इसके लिए आधा कि. नमक 200 लीटर पानी में घोलते हैं इसमें बीज को डाला जाता है। जो बीज हल्का होता है वह पानी में तैरने लगता है। इसे छानकर फेंक दे।भारी बीज का ही खेत में प्रयोग करे।इसके साथ ही थिरम द्वारा भी बीजोपचार 2.5 ग्रा. प्रति कि. बीज की दर से किया जा सकता है।
बुवाई छिटकवा विधि से करने के पुनः जुताई कर बीजो को ढ़क देना चाहिए। हालांकि इस विधि में बीज अधिक लगता है तथा पौध से पौध के बीच समान दूरी नहीं रह पाती है।ऐसे में डिब्लिंग विधि से 20 से.मी. की दूरी पर कतार बनाकर प्रत्येक कतार में 15 से.मी. की दूरी पर बीज खुरपी या डिब्लर द्वारा डाला जा सकता है। इस विधि में बीज कम लगता है, पौधों की उचित संख्या प्रति हेक्टेयर बरकरार रहती है पर यह एक महंगी विधि है। पंक्ति में बुवाई विधि में 20-25 से.मी. की कतारों में हल्के पीछे या सीड ड्रिल द्वारा इसे 3-5 से.मी. की गहराई पर बीज बोया जाता है। पौधों से पौधों की दूरी पंक्ति में 15 से.मी. रखी जाती है। यह सबसे उपयुक्त विधि है। किसान अगर मडुआ की रोपाई करते है तो इसके लिए पौध को मई तथा जून में तैयार करना होगा। तैयार पौध को नमी युक्त खेत में 20-25 से.मी. की दूरी वाली कतारों में 15 से.मी. की दूरी पर रोपाई कर सकते हैं।
कम से कम दो-तीन पौधों को एक गड्ढे में लगाते हैं। बुवाई के 15-20 दिन बाद निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए जिससे खरपतवार का प्रभाव फसल पर ना पड़े तथा इसी के साथ आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालकर प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या संतुति के अनुसार रख ली जाती है। अधिक खरपतवार होने तथा श्रमिकों के अभाव में रासायनिक दवाओं का भी प्रयोग किया जा सकता है। सिंचाई-यदि फसल वर्षा ऋतु में लगाई जाती है तो इसे पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके अतिरिक्त गर्मी में बोई गई फसल को पानी देना पड़ता है। आवश्यकतानुसार मौसम तथा बोने के समय के आधार पर सिंचाई की मात्रा निर्भर करती है। साधारणतया 2 सिंचाई पर्याप्त होती है। सिंचाई 15-20 दिन के अंतर पर करनी चाहिए।
उक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम में कृषि विज्ञान केंद्र परसौनी के अन्य वैज्ञानिक और सहायक कर्मी रूपेश कुमार, चुन्नु कुमार, अजय कुमार झा ने भी किसानों के बीच अपना विचार रखे।