पृथ्वी से ही जीवन है

पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) पर विशेष

पृथ्वी से ही जीवन है

गिरीश्वर मिश्र

पृथ्वी, धरती, वसुंधरा, भूमि आदि विभिन्न नामों से जाने जाने वाली सता को हजारों साल से माता कहा जाता रहा है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में माताभूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: का उद्घोष मिलता है। माता के रूप में पृथ्वी जाने कब से मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि सभी जीवित प्राणियों यानी अपने आश्रितों का निर्व्याज भरण-पोषण करती आ रही है। माता का स्वभाव है कि वह स्वयं कष्ट सह कर भी अपना सारा प्रेम शिशुओँ के ऊपर उड़ेलती रहती है क्योंकि वह अपनी संततियों को अपने अस्तित्व से अलग नहीं रखती। वे उसी के अभिन्न अवयव या अंश होते हैं । वैसे भी सारी दुनिया में जो कुछ भी स्थित है वह ईश्वर का आवास है: ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत । इसलिए उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं बनता । तभी भारत के आदमी ने सोचा कि पृथ्वी पर जीवन सिर्फ़ बसता नहीं है । वह प्राण शक्ति है और वह उसी की बदौलत जीता है । हमारी भाषा, विचार और शरीर-रचना सब पर इस भूमि का अनिवार्य प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी प्राणियों के लिए आश्रय ही नहीं है वरन उसी से ही जीवन संभव हो पाता है। हम सब पृथ्वी के तत्वों से निर्मित होते हैं। मिट्टी की सबसे विलक्षण शक्ति उसकी उर्वरा क्षमता में निहित है। इस जीवनी शक्ति के चलते रूखे-सूखे बीज का रूपांतरण होता है, अंकुरित होकर वह बीज हरी-भरी घास, अन्न की लहलहाती फसल, नाना प्रकार के चित्ताकर्षक सुगंधित पुष्प, भाँति-भाँति के सुस्वादु रसीले फल वाले, औषधीय और अन्य क़िस्म के वृक्ष-वनस्पतियाँ आदि जानें क्या-क्या बन जाता है।

धरती के नीचे प्रवाहित जल हमारे जीवन का स्रोत है। उसके क्रोड़ में विभिन्न धातुएँ-कोयला, सोना, चाँदी, लोहा, हीरा, मोती हैं, ऊर्जा का स्रोत पेट्रोल है। क्या कुछ नहीं है उसमें। बहुत से पदार्थ ऐसे भी हैं जो रत्नगर्भा पृथ्वी ने अपने भीतर छिपा रखे हैं और हमें उनका ज्ञान नहीं है। ऐसी पृथ्वी जड़ नहीं है और हमें अपने अस्तित्व को उसके हिस्से के रूप में देखना चाहिए। हमारा पृथ्वी से सम्बन्ध एक समग्र रचना या अंगी के अंग के रूप समझना चाहिए। पृथ्वी को देवता माना गया। पृथ्वी रक्षणीय और वंदनीय हो गयी। भूमि को माता का दर्जा मिला। परंतु आज की स्थिति भिन्न है। अब वैश्विक स्तर पर सभी देशों को प्रभावित करने वाली चुनौतियों में जलवायु - परिवर्तन को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। ग्लेशियरों के बहुत बड़े पैमाने पर पिघलने की घटना से प्राकृतिक संतुलन ख़तरे में पड़ रहा है । हम सब प्रकृति और मनुष्य अलग-अलग देखने लगे हैं। प्रकृति का संसाधन वाला रूप बड़ा आकर्षक लगता है। विगत वर्षों में पर्यावरण से जुड़े हादसों में बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई है किंतु मनुष्य अपने सीमित स्वार्थों के चलते बाज नहीं आता। उसे यह विस्मृत हो जाता है कि प्रकृति विकल्पहीन है।उसे खोने का ख़तरा हमें कहीं का न रखेगा। यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों में बाढ़, लू, सूखा और तूफ़ान जैसी चरम स्थितियों का कई कई बार सामना करना पड़ा है। भारत के अनेक क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषिका का असर हुआ था। दुबई में हुई ताजा वर्षा और बाढ़ अभूतपूर्व है।

विकास को लेकर चिंतन में ‘टिकाऊ विकास’ के लक्ष्यों को पहचानना सराहनीय कदम था। पर उद्घोषणा को कार्यस्तर पर लागू करने तक की अब तक की यात्रा आगे नहीं बढ़ पा रही है। जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियों के विनाश और जैव विविधता के ह्रास का ख़तरा बढ़ रहा है। सभी देश पर्यावरण की रक्षा के लिए ज़रूरी मानकों, मानदंडों और पाबंदियों को स्वीकार न करके छूट लेने की फ़िराक़ में हैं। ग्रीनगैस के उत्सर्जन को लेकर आज जो हालात हैं उसमें यह स्थिति ख़ास तौर पर दिख रही है। अब पृथ्वी पर तापमान में वृद्धि अनियंत्रित होती जा रही है। विडम्बना यह भी है कि इस वैश्विक पैमाने पर आ रही विपत्ति का नुक़सान अक्सर कम विकसित देशों को ही भुगतना पड़ता है। अनुमान है कि विश्व को 2.5 से 2.9 सेल्सियस तापमान से गुजरना होगा। मौसम में होने वाले इस तरह के क्रांतिक बदलाव के भयानक परिणाम हो सकते हैं।

आज प्रौद्योगिकी का जिस तेज़ी से विकास हो रहा है वह प्रकृति की संभावनाओँ को कुंठित और करने वाला साबित हो रहा है । खेती में में रासायनिक खाद और कीटनाशकों आदि के विविध रूप विष की तरह मानव शरीर में पहुँच कर अनेक रोगों को जन्म दे रहे हैं। यही हाल आणविक ऊर्जा के उत्पादन से जुड़ी समस्याओं का भी है। वृक्षों आदि विभिन्न वनस्पतियों, मनुष्य और अन्य जीव जंतु सभी परस्पर निर्भर हैं। ये सभी एक दूसरे के लिए पूरक की तरह सक्रिय हो कर काम करते हैं। परंतु मनुष्य प्रकृति से लेता तो है पर उसे देने की बात याद नहीं रहती है। हाँ, कई लोगों को मन में यह भ्रम ज़रूर है कि प्रकृति असमाप्य है, कभी ख़त्म न होगी। हम प्रकृति को जड़ या निर्जीव मान कर मनोवांछित तरीक़े से इच्छानुसार उसके शोषण और दोहन में शामिल हो जाते हैं। यह हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता जाता है। हम असंवेदनशील और असहिष्णु हो कर हिंसक बनते जाते हैं।

पृथ्वी से मिलने वाले प्रसाद का सेवन श्रेयस्कर होता है न कि लोभवश अंधाधुंध शोषण। पृथ्वी की अकूत सम्पदा में बहुत कुछ यदि पुनर्नवीकरण करने लायक़ (रिन्यूएबिल) होता है तो बहुत कुछ उपयोग के साथ क्रमश: ख़त्म होता जाता है। परंतु यह सब देख हम पृथ्वी को एक संसाधन मान बैठते हैं जिसका शोषण करने लगते हैं। पृथ्वी को उपभोग्य और उसके सभी पक्षों का उपभोग करते रहना हम अपना हक़ सा मान बैठे है। इस उपभोग के अनियंत्रित होने से जीवन की पारिस्थितिकी ख़तरे में पड़ने लगी है क्योंकि सब कुछ परस्पर सम्बंधित है। खेती-बारी, काम-धंधा, सुख-स्वास्थ और सामाजिक-आर्थिक उन्नति से जुड़ी सारी गतिविधियाँ धरती पर ही टिकी हैं। आधुनिक आदमी की सोच में मनुष्य ने पृथ्वी को जड़ मान अपने को अलग कर उस सम्पदा का स्वामी मान बैठा। उसे जीवन को संचालित करने के लिए ‘विकास’ का एक नया मंत्र मिला गया जिसका आशय निरंतर आगे बढ़ना है और दुनिया के सारे संसाधनों का उपयोग करना है। दुनिया, जगत या पृथ्वी हमारे लिए साधन हैं जिनका मन मर्ज़ी से उपयोग करना है। मनुष्य सब कुछ का केंद्र बन गया और उसके स्वार्थ की सिद्धि को प्रमुख मान लिया गया। पृथ्वी के सभी संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू हुआ। अनियंत्रित विकास के चलते एक ओर पृथ्वी की उर्वरा शक्ति कम होने लगी तो दूसरी ओर कूड़ा-कचरा का ढेर लगाने लगा। जो जितना विकसित हुआ उसने उतने ही ज़्यादा कूड़ा पैदा किया। देखते-देखते राजधानी दिल्ली जैसे बड़े महानगरों में कूड़े के कई पहाड़ खड़े हो गए जिनका निस्तारण असंभव सी परियोजना हो गयी।

मातृभूमि का एक भौतिक आधार है पर वह सांस्कृतिक संकल्पना है। भौतिक विस्तार के क्षेत्र का घट-बढ होता रहा है। मातृभूमि राष्ट्रीय संस्कृति का मुख्य अंश रहा है। सुजलां , सुफलां, मलयजशीतलां मातरं, बंदे मातरम् का आवाहन हमें कर्म और त्याग के साथ ‘मातृदेवो भव’ के संकल्प की ओर अग्रसर करता है। भारत भूमि ऐसी ‘पुण्यभूमि’ के रूप में याद की गई है जहां जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं। मातृभूमि की वंदना राष्ट्रीय संस्कृति का मुख्य भाग रहा है। यह राष्ट्रीय आस्था का विषय है। धरती के साथ हिंसा किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकती। पृथ्वी को जन की धात्री कहा है। उपेक्षा की जगह जागरूक हो कर पृथ्वी की सेवा-सुश्रूषा अपेक्षित है। भौतिक समृद्धि के साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होनी चाहिए। एकांगी भौतिक विकास के परिणाम जलवायु परिवर्तन के दृष्टि से घातक हैं। मातृभूमि के संवर्धन में ही सबकी वृद्धि है। मतभेद, प्रतिस्पर्धा और हिंसा के फलस्वरूप मातृभूमि की हानि और सामान्य जन जीवन की भी हानि होती है। दोनों परस्पर निर्भर हैं। हर तरह की विविधता को परे करते हुए मातृभूमि सभी का ख़्याल रखती है। मातृभूमि का भाव निर्मल करने वाला होता है और वह बिना किसी के साथ भेद-भाव किए वह विभिन्न प्रकार के लोगों और समुदायों का भरण पोषण करती है। आज प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक रिश्ते को पहचानते हुए मनुष्य के आचरण पर बल देने की ज़रूरत है। अकेले मनुष्य नहीं बल्कि मनुष्य और प्रकृति के बीच पारस्परिक सम्बन्ध महत्वपूर्ण है। हमें प्रकृति के सहचर के रूप में रहना होगा। वह हमारा ख़्याल रखेगी यदि हम उसका ख़्याल रखेंगे।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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