बोरवेल दुर्घटनाएं उच्चतम न्यायालय के 2010 के दिशानिर्देशों पर अमल में खामियों को दर्शाती हैं
नयी दिल्ली, 24 दिसंबर (भाषा) देश के विभिन्न हिस्सों में बोरवेल से जुड़ी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा दिशानिर्देश जारी किये जाने के 14 साल बाद भी इस तरह की घटनाओं में लगातार वृद्धि शीर्ष अदालत के आदेश के क्रियान्वयन में एवं जागरूकता पैदा करने में खामियों को उजागर करती है।
इस तरह की दुर्घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि के बाद हताशाजनक और नाटकीय बचाव अभियान चलाए गए हैं।
हाल ही में, राजस्थान के कोटपुतली-बहरौर जिले में लगभग तीन साल की नाबालिग चेतना बोरवेल में गिर गई थी और उसे 150 फुट गहरे बोरवेल से निकालने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (एसडीआरएफ) को तैनात किया गया था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उसे बचाने के प्रयास जारी थे।
राजस्थान के दौसा में नौ दिसंबर को पांच-वर्षीय आर्यन खेलते समय 150 फुट गहरे बोरवेल में गिर गया था और 55 घंटे के बचाव अभियान के बाद उसे बेहोशी की हालत में बाहर निकाला गया, लेकिन अस्पताल ले जाने पर उसे मृत घोषित कर दिया गया।
ये घटनाएं शीर्ष अदालत द्वारा 11 फरवरी, 2010 को जारी उन व्यापक दिशानिर्देशों के बावजूद हुईं, जिनका उद्देश्य ऐसी त्रासदियों को रोकना था।
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस पत्र याचिका का स्वत: संज्ञान लेते हुए ये दिशानिर्देश दिये थे, जिसमें देशभर में ऐसी दुर्घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी की 13 फरवरी, 2009 को चर्चा की गयी थी।
इन दिशानिर्देशों में निर्माण के दौरान कुएं के चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगाना, कुएं के ऊपर बोल्ट से फिक्स किए गए स्टील प्लेट कवर का उपयोग करना और बोरवेल को नीचे से लेकर ऊपर तक भरना आदि शामिल थे।
शीर्ष अदालत ने अधिकारियों से अपने संबंधित आदेश का व्यापक प्रचार-प्रसार करने को भी कहा था।
शीर्ष अदालत ने 11 फरवरी, 2010 को जारी अपने आदेश में कहा था, ‘‘इस न्यायालय के संज्ञान में लाया गया है कि कई मामलों में बच्चे बोरवेल और ट्यूबवेल या परित्यक्त कुओं में गिर गए हैं। ये खबरें विभिन्न राज्यों से आ रही हैं। तदनुसार, हमने स्वतः संज्ञान लेते हुए विभिन्न राज्यों को इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने के वास्ते नोटिस जारी किये हैं।’’
इसके अलावा, भूमि या परिसर के मालिक को बोरवेल या ट्यूबवेल बनाने के लिए कोई भी कदम उठाने से पहले संबंधित अधिकारियों- जिला कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट अथवा सरपंच- या भूजल या सार्वजनिक स्वास्थ्य अथवा नगर निगमों के विभाग के अधिकारियों को कम से कम 15 दिन पहले लिखित रूप से सूचित करने का निर्देश दिया गया था।
न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया था कि सभी सरकारी, अर्ध-सरकारी या निजी ड्रिलिंग एजेंसियों का पंजीकरण अनिवार्य होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘‘निर्माण के समय कुएं के पास एक संकेतक लगाया जाना चाहिए, जिसमें निम्नलिखित विवरण अवश्य हों: (क) कुएं के निर्माण या पुनरुद्धार के समय ड्रिलिंग एजेंसी का पूरा पता, (ख) उपयोगकर्ता एजेंसी या कुएं के मालिक का पूरा पता।’’
इसने कहा था कि पंप की मरम्मत के मामले में ट्यूबवेल को खुला नहीं छोड़ा जाना चाहिए तथा काम पूरा होने के बाद मिट्टी के गड्ढों और चैनलों को भर दिया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा था, ‘‘संबंधित दिशानिर्देशों का व्यापक प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय टेलीविजन चैनलों के माध्यम से किया जाएगा। इस आदेश की एक प्रति सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजी जाए, जो इसे अपने-अपने राज्य के सभी जिलों के जिला कलेक्टर को भेजेंगे।’’
छह अगस्त, 2010 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस एच कपाड़िया की अगुवाई वाली तीन-सदस्यीय पीठ ने 11 फरवरी, 2010 के आदेश में थोड़ा संशोधन किया और याचिका का निपटारा कर दिया।
पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि जिला स्तर पर सभी बोरवेल और ट्यूबवेल (छोड़े गए या चालू) की जिला/ब्लॉक/गांववार स्थिति का ब्यौरा रखा जाना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में निगरानी का काम गांव के सरपंच और कृषि विभाग के एक अधिकारी के माध्यम से करने का निर्देश दिया गया।
अदालत ने कहा कि शहरी क्षेत्रों में यह काम जूनियर इंजीनियर और भूजल या सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग या नगर निगम के एक अधिकारी द्वारा किया जाना चाहिए।