एनएसडी के साथ मेरा संबंध द्रोणाचार्य और एकलव्य की तरह : मनोज बाजपेयी
नयी दिल्ली, सात दिसंबर (भाषा) अभिनेता मनोज बाजपेयी ने कहा है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) द्वारा उन्हें चार बार अस्वीकृत किये जाने के बाद इस शीर्ष अभिनय संस्थान के साथ उनका रिश्ता द्रोणाचार्य-एकलव्य जैसा बन गया और इसने उनकी सफलता को आकार दिया।
अभिनेता ने कहा कि 2,500 रुपये का मासिक वजीफा (अब 15,000 रुपये), सिर पर छत, कैंटीन का मुफ्त खाना और अभिनय की दुनिया के बेहतरीन लोगों के बीच रहना, क्या 22 साल की उम्र में एनएसडी से बेहतर कोई जगह हो सकती थी।
उन्होंने कहा कि लेकिन चार प्रयासों के बावजूद ऐसा नहीं हो सका।
बाजपेयी ने यहां समाचार एजेंसी ‘पीटीआई’ के मुख्यालय में एक विशेष साक्षात्कार के दौरान कहा, ‘‘एनएसडी के साथ मेरा रिश्ता काफी हद तक वैसा ही है जैसा एकलव्य का गुरु द्रोणाचार्य के साथ था। यह अलग बात है कि उन्होंने (गुरु दक्षिणा में) मेरा अंगूठा नहीं मांगा। बल्कि, उन्होंने मेरा स्वागत किया। वे मुझे छात्रों के साथ कार्यशालाएं आयोजित करने के लिए बुलाते हैं। परस्पर सम्मान की भावना है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है।’’
उन्होंने कला और मुख्यधारा की फिल्मों में बड़ा नाम बनने से पहले थिएटर से अभिनय की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि एनएसडी, पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान और कोलकाता के सत्यजीत राय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान विश्व स्तर के हैं।
बाजपेयी ने कहा, ‘‘मुझे समझ नहीं आता कि उन्हें उनका हक क्यों नहीं मिलता।’’
अभिनेता ने कहा कि उन्होंने एनएसडी द्वारा अस्वीकृत किये जाने के बारे में कभी शिकायत नहीं की, यहां तक कि जब ऐसा पहली बार हुआ था, तब भी नहीं।
उन्होंने कहा, ‘‘इसके विपरीत, मुझे लगा कि मैं उतना अच्छा नहीं हूं और मुझमें कई कमियां हैं, क्योंकि एनएसडी कभी गलत नहीं हो सकता।’’
लेकिन पहली बार जब वह असफल हुए, तो उन्हें बहुत बुरा लगा था। उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में तब पढ़ाई कर रहे बाजपेयी ने बताया कि उन्होंने मुखर्जी नगर में अपने किराये के कमरे में खुद को बंद कर लिया था। उनके दोस्तों ने समझाया-बुझाया और उन्हें इस सदमे से बाहर निकलने में मदद की।
‘सत्या’, ‘शूल’, ‘जुबैदा’, ‘गैंग्स आफ वासेपुर’, ‘अलीगढ़’ जैसी फिल्में और ‘द फैमिली मैन’ जैसी वेब सीरीज देने वाले बाजपेयी ने कहा, ‘‘यह मेरे जीवन का एक बुरा समय था, जब मुझे यह जरा भी नहीं पता था कि आगे क्या करना है। मेरा पहला लक्ष्य एनएसडी में प्रवेश करना था। मैं तीन साल तक भारत के सर्वश्रेष्ठ लोगों के साथ काम करूंगा और 24 घंटे परिसर में रहूंगा। वहां मुझे खाने, ठहरने के बारे में नहीं सोचना था। मुझे छात्रवृत्ति मिलेगी। मेरे खयाल से उस वक्त छात्रवृत्ति की राशि तकरीबन 2500 रुपये थी। मैंने सुना है कि अब यह (छात्रवृत्ति की राशि) 15000 रुपये है।’’
हालांकि, उन्होंने मंडी हाउस में आयोजित नाटकों के माध्यम से साल दर साल धीरे-धीरे अपने पैर जमा लिए। यह स्थान उस समय दिल्ली में रंगमंच का केंद्र था।
बाजपेयी ने कहा, ‘‘मैंने तीन साल तक दिन भर केवल थिएटर किया। मैं दिन में 18 घंटे काम करता था। मैं इस कला को सीखने के लिए इतना उत्साही और जुनूनी था कि मलेरिया से पीड़ित होने के बावजूद मैं अभ्यास करने गया था और हिंदू कॉलेज के बाहर चाय की दुकान के पास बेहोश हो गया था।’’
उन्होंने कहा, ‘‘जब कुछ छात्रों ने मेरे चेहरे पर पानी का छींटा मारा, तब मुझे होश आया...मैं कठोर परिश्रम कर रहा था, मेरे अंदर सीखने की उत्कट अभिलाषा थी। इस काम के लिये काफी जुनून था। मैंने एक पल भी नहीं गंवाया।’’
उन्होंने कहा कि दिल्ली में बिताये गए समय चुनौतीपूर्ण थे, हालांकि वह इसे ‘‘संघर्ष’’ के रूप में नहीं देखते। इसके बजाय, वह उन दिनों को उस दौर के रूप में देखते हैं जिसने उन्हें बाद में एक नया आकार दिया।
बाजपेयी ने कहा, ‘‘जब आप एक साधारण परिवार से आते हैं...तो आप अपने दोस्तों पर बहुत निर्भर होते हैं। मैंने उनसे जूते, चप्पल मांगे और उन्होंने अपने कपड़े भी मेरे साथ साझा किए। उस उम्र में आप इस बारे में ज्यादा नहीं सोचते।’’
उन्होंने कहा, ‘‘जब कभी मेरे पास बस का टिकट खरीदने के लिए पैसे नहीं होते, तो मैं पैदल ही यमुना विहार चला जाता था। और उस यात्रा के दौरान मैं नाटक की अपनी पंक्तियां सीखता था। और अगर मैं थक जाता, तो चांदनी चौक या आईएसबीटी (अंतरराज्यीय बस अड्डा) पर रुक जाता था।’’
एकलव्य महाभारत का एक पात्र था, जिसने गुरु द्रोणाचार्य के उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना करने के बाद उनकी प्रतिमा को ही अपना गुरु बनाकर सीखना शुरू कर दिया था। जब आचार्य द्रोण ने उसके कौशल को अपने छात्रों से बेहतर पाया, तो उन्होंने ‘गुरु दक्षिणा’ के तौर पर एकलव्य से उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया।