सीओपी29 में भारत की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया का खुलासा: वास्तव में क्या हुआ?
नयी दिल्ली, एक दिसंबर (भाषा) भारत में 24 नवंबर की सुबह जब ज्यादातर लोग गहरी नींद में थे, अजरबैजान की राजधानी बाकू में ओलंपिक स्टेडियम के सम्मेलन कक्ष में एक नाटकीय घटनाक्रम हुआ। लगभग 200 देशों के राजनयिक, नागरिक समाज के प्रतिनिधि और पत्रकार एक ऐसे फैसले को देखने के लिए एकत्र हुए थे जो ‘ग्लोबल साउथ’ में जलवायु कार्रवाई का भाग्य निर्धारित कर सकता था।
‘ग्लोबल साउथ’ शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर आर्थिक रूप से कम विकसित देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।
लेकिन जो कुछ हुआ वह सामान्य बात नहीं थी। यह कूटनीतिक अस्थिरता का एक ऐसा क्षण था, जिसने कई लोगों को स्तब्ध कर दिया और भारतीय प्रतिनिधिमंडल को नाराज कर दिया।
इस वर्ष के संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के अध्यक्ष मुख्तार बाबायेव जैसे ही एजेंडे के मुख्य विषय ‘जलवायु वित्त पर नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य’ (एनसीक्यूजी) की ओर बढ़े, भारत के उप-मुख्य वार्ताकार नीलेश साह सीओपी29 के मुख्य वार्ताकार याल्चिन रफियेव के पास पहुंचे और बताया कि देश विवादास्पद निर्णय को अपनाने से पहले एक बयान देना चाहता है।
देर रात लगभग ढाई बजे बिना किसी आपत्ति या टिप्पणी के, बाबायेव ने घोषणा की कि 300 अरब डॉलर का जलवायु-वित्त पैकेज स्वीकृत हो गया है।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र में जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम की प्रमुख अवंतिका गोस्वामी ने कहा कि यह ‘‘काफी अचानक और अप्रत्याशित रूप से’’ हुआ।
उन्होंने कहा, ‘‘हम आश्चर्यचकित थे क्योंकि आखिरी ज्ञात आंकड़ा 300 अरब अमेरिकी डॉलर - जी77 समूह के 500 अरब अमेरिकी डॉलर के समझौते से बहुत कम था। हम यह भी जानते थे कि भारत इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की तैयारी कर रहा था। तथ्य यह है कि इस तरह की कोई आपत्ति उठाए जाने से पहले ही इसे पारित कर दिया गया, आश्चर्यजनक था।’’
इस बीच, बाबायेव ने क्यूबा को वक्तव्य देने के लिए माइक्रोफोन दिया, उसके बाद भारत, बोलीविया, नाइजीरिया और मलावी ने 45 अल्प-विकसित देशों के समूह की ओर से बात की। कुल मिलाकर 49 देशों ने इस समझौते पर आपत्ति जताई। यूएनएफसीसी प्रक्रिया में, एक आपत्ति किसी निर्णय को रोकने के लिए पर्याप्त होती है।
भारत का हालांकि इस समझौते को रोकने का कोई इरादा नहीं था और उसकी नाराजगी सिर्फ धनराशि को लेकर नहीं थी।
भारत की ओर से बयान देते हुए आर्थिक मामलों के विभाग में सलाहकार चांदनी रैना ने कहा कि जिस तरह से यह समझौता किया गया वह ‘‘अनुचित’’ और ‘‘सुनियोजित’’ था।
समझौते पर वार्ता के बाद जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश विभिन्न स्रोतों- सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय तथा वैकल्पिक स्रोतों से कुल 300 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष मुहैया कराने का लक्ष्य 2035 तक हासिल करेंगे।
रैना ने नए जलवायु-वित्त पैकेज की तीखी आलोचना की तथा कहा कि 2035 तक प्रति वर्ष मात्र 300 अरब अमेरिकी डॉलर ‘‘बहुत कम और बहुत दूर की कौड़ी है।’’
रैना ने समझौते में भारत के लिए तीन प्रमुख मुद्दों की ओर ध्यान दिलाया - समझौते के पैराग्राफ 8ए, 8सी और 9।
रैना ने इसे विकसित देशों की जिम्मेदारियों से ध्यान भटकाना बताया।
सवाल उठाए गए हैं कि भारत ने शनिवार या उससे पहले प्रतिनिधिमंडल प्रमुखों की बैठक में इन मुद्दों का उल्लेख क्यों नहीं किया?
स्पष्ट है कि भारत ने दो सप्ताह के सम्मेलन के दौरान अपनी चिंताओं को पहले ही व्यक्त कर दिया था।
इस घटनाक्रम से परिचित एक पूर्व वार्ताकार ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया कि भारत की अंतिम समय में की गई आपत्ति कोई नाराजगी नहीं थी, बल्कि यह निष्पक्षता की अपील थी।
भारत इस पर और अधिक चर्चा चाहता था, विशेषकर इसलिए क्योंकि इसका मूल पाठ - वास्तविक संख्याओं के साथ - इसे अपनाए जाने से एक दिन पहले ही प्रकाशित किया गया था।
पूर्व वार्ताकार ने कहा, ‘‘शनिवार (23 नवंबर) को बंद कमरे में हुई बैठक में भारत को 300 अरब डॉलर का आंकड़ा दिखाया गया, लेकिन आधिकारिक दस्तावेजों में इसे अब भी 250 अरब डॉलर ही दर्शाया गया है। जाहिर बात है इससे भारत हैरान था।’’
पूर्व वार्ताकार ने बताया कि भारत निर्णय को अंतिम रूप दिए जाने से पहले इन सभी बिंदुओं को उठाना चाहता था, लेकिन अध्यक्ष के कार्यालय ने उसे मौका नहीं दिया।
एक अन्य पूर्व वार्ताकार ने बताया कि पूर्ण अधिवेशन में भारत के बयान से इन सभी मुद्दों पर उचित चर्चा की उसकी इच्छा का संकेत मिलता है।
उन्होंने कहा कि यदि भारत और अन्य देश इस फैसले से पहले बात करते तो शायद समझौते में देरी हो सकती थी। उन्होंने कहा कि भारत के कदमों से पता चलता है कि वह इस समझौते को पूरी तरह से पटरी से उतारने की कोशिश नहीं कर रहा था।
‘पीटीआई-भाषा’ से बात करने वाले ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की छाया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। एक वार्ताकार ने कहा, ‘‘देश यह सोचकर डरे हुए थे कि अगले साल का समझौता और भी बुरा होगा। उन्हें लगा कि इस समझौते को स्वीकार करना उनके लिए मुश्किल होगा।’’