बुन्देलखंड में नई पीढ़ी का हो रहा फाग से मोहभंग

डिजिटल इंडिया के दौर में युवाओं की दिलचस्पी बढ़ने के कारण गांव की फाग चौपालें सूनी हो गई हैं

बुन्देलखंड में नई पीढ़ी का हो रहा फाग से मोहभंग

हमीरपुर, 24 मार्च (हि.स.)। बुन्देलखंड क्षेत्र में होली त्योहार की फाग से अब नई पीढ़ी के लोगों का मोह भंग हो गया है। ग्रामीण इलाकों में सैकड़ों सालों से फाग गाने की चली आ रही परम्परा भी अब दम तोड़ऩे लगी है। इसीलिए गांवों में फाग की चौपालों में सन्नाटा पसरा है।

हमीरपुर, महोबा, बांदा, चित्रकूट, ललितपुर और जालौन समेत समूचे बुन्देलखंड क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में होली त्योहार से दस दिन पहले से ही गांवों में फाग की चौपालें सजनी लगती थीं। फाग की चौपालों में किसी जमाने में बुजुर्ग और युवाओं की भीड़ भी जुटती थी लेकिन अब आधुनिक दौर में युवाओं का फाग से कोई लगाव नहीं रह गया है। डिजिटल इंडिया के दौर में युवाओं की दिलचस्पी बढ़ने के कारण गांव की फाग चौपालें सूनी हो गई हैं। गांव के बुजुर्ग भी होली की फाग गीतों के बोल कहीं न गूंजने से मायूस हैं। मिथलेश व देवकरन समेत तमाम बुजुर्गों ने बताया कि एक समय था जब फाल्गुन महीना शुरू होते ही गांवों की चौपालों में फाग के बोल गूंजने लगते थे। फाग गीतों की धूम भी होली जलने के सात दिनों तक लगातार मचती रहती थी। अब जब होली जलने के छह दिन रह गए है तो गांवों की चौपालें अभी भी सूनी पड़ी है। बुजुर्गों का कहना है कि मोबाइल और शराब की लत में नई पीढ़ी के लोग फाग की चौपालों में हिस्सा नहीं लेते है। ये लोग तो डीजे पर अश्लील गीत बजाकर मस्ती करते हैं।

फाग गीतों के बोल नहीं गूंजने से बुजुर्ग मायूस

कभी बुन्देलखंड क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में होली से पहले फाग गायकी से गांवों की चौपालें सजती थी लेकिन अब ये सूनी पड़ी हैं। लोक गायक अमर सिंह समेत तमाम बुजुर्गों ने बताया कि इक्का दुक्का स्थानों पर ही फागुवारे नजर आते है। लेकिन आधुनिकता के दौर में यह विलुप्त होते जा रहे हैं। बताया कि नई पीढ़ी के लोगों की फाग गायन की परम्परा पर रुचि नहीं रह गई है। इसीलिए फाग की महफिलें भी सन्नाटे में है।

ईश्वरी फागें सुनकर कभी श्रोता होते थे ओतप्रोत

बुजुर्गों ने बताया कि किसी जमाने में फाल्गुन महीना शुरू होते ही ईश्वरी फागें सुनकर लोग ओतप्रोत हो जाते थे। लेकिन अब फाग गीत कहीं नहीं सुनाई देते है। होली पर लगातार आठ दिनों तक फाग गायकी का कार्यक्रम चौपालों में चलता था। अलग-अलग सुर और लय के साथ इस सैकड़ों साल पुरानी परम्परा को बुजुर्ग भी निभाते रहे हैं मगर युवा पीढ़ी ने एकदम इस परम्परा से नाता ही तोड़ लिया है।

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