संस्कृति हमारी भावनाओं एवं पहचान का आधार:कुलपति

भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की समानांतर धारा चलती रही

संस्कृति हमारी भावनाओं एवं पहचान का आधार:कुलपति

पूर्वी चंपारण,13 मार्च(हि.स.)। महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय राजकुमार शुक्ल सभागार में हिंदी विभाग की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 'भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाषा, साहित्य और संस्कृति' का शुभारंभ बुधवार को किया गया।

संगोष्ठी में उद्धाटन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. संजय श्रीवास्तव ने कहा कि राष्ट्रवाद हमारी भावनाओं एवं पहचान पर निर्भर करती है। औपनिवेशिकता के प्रतिकार के रूप में भी इसकी पहचान होती है। इस प्रतिउत्तर का आधार भारत की संस्कृति थी। संस्कृति के माध्यम से आंदोलन को जन-जन तक ले जाने में सहूलियत हुई। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की समानांतर धारा चलती रही।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी प्रस्कृत होती रही, भाषा ने भी अपने को बड़ी लड़ाई के लिए तैयार किया। साहित्य के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता पर तीक्ष्ण कटाक्ष किया गया। वही मुख्य अतिथि के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने कहा की भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम और संस्कृति की संवाहिका है। 1857 की क्रांति ने जनमानस को यह प्रेरणा दिया कि देश के लिए कुछ करना चाहिए।

जनमानस को सांस्कृतिक रूप से ही जागृत करके हम राजनीतिक लड़ाई को जीत सकते हैं।गोरखपुर से पधारे आचार्य प्रो. नित्यानंद श्रीवास्तव ने कहा कि औपनिवेशिक सत्ता ने भारत का 200 वर्षों तक अनुसंधान किया जिससे वह यहां की संस्कृति को जीत सके। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई नब्बे वर्षों की नहीं है बल्कि यह आज भी भाषा के स्तर पर जारी है।

सत्र में भाषा एवं मानविकी संकाय के अधिष्ठाता एवं गाँधी भवन परिसर के निदेशक प्रो. प्रसून दत्त सिंह ने कहा कि इस प्रकार की संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य नए तरंगों को प्रस्फुटित करना है। भारतीय स्वतंत्रता का आंदोलन इसलिए भी अनूठा रहा कि इसमें संस्कृति सदैव विद्यमान रही और इसके ही दम पर हम लोगों ने ब्रिटिश सत्ता को परास्त किया।

संगोष्ठी में स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.अंजनी कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन नब्बे वर्षों का है। जिसमें 1857 से लेकर 1936 के समय को कई विद्वान कई नाम एवं उद्धरण से अपने लेखन में प्रस्तुत करते हैं परन्तु नाटक, उपन्यास एवं अन्य विधाओं ने इसे एक नया रूप दिया गया जिसके केंद्र में 'स्व' रहा। भारतेंदु युग से छायावाद युग तक यह आंदोलन सूक्ष्म होती चली जाती है और 1936 के बाद स्थिति बदलती है। स्व के बोध को ध्वस्त करते हुए पूरे आन्दोलन की व्याख्या मार्क्सवादी विचार से होने लगता है। लेकिन संग्राम में स्व की मीमांसा है यह उसकी केंद्रीयता है और भाषा का सूक्ष्म रूप इसमें दिखाई देता है।

संगोष्ठी में विषय प्रवेश करते हुए हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. गोविंद प्रसाद वर्मा ने कहा कि भारतेंदु ने भाषा के लिए कार्य किया और यही से चिंतन प्रारंभ होता है। साहित्य के स्तर पर इस काल में भारतेंदु ने अंतर्वस्तु एवं रूप दोनों को बदल दिया। यहां साहित्य चेतना बीज से वृक्ष के रूप में परिवर्तित होती दिखाई पड़ती है। संस्कृति के सारे आयामों को हिंदी में प्रस्तुत किया गया। हिंदी हमारी संस्कृति की वाहिका के रूप में अपनी भूमिका को स्वतंत्रता आंदोलन में निर्वाहन किया।

इस सत्र में एल.एन.टी महाविद्यालय सहरसा में हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. मयंक भार्गव ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस सत्र में श्रीकृष्णा सिंह महिला महाविद्यालय मोतिहारी की सहायक आचार्य डॉ. अपर्णा एवं डॉ. कुमारी रंजना ने अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया। सत्र का संचालन शोधार्थी मनीष ठाकुर ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन हिंदी विभाग की सहायक आचार्य डॉ. आशा मीणा ने किया।

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